सारिका धूपड़ का काव्य -संग्रह -अभिसार : एक पाठकीय प्रतिक्रिया
मुश्किल यह है कि हम सब यहां अलग अलग लिख रहे हैं। मैं कुछ लिख रहा हूँ. आप कुछ लिख रही हैं। वे कुछ लिख रहे हैं। स्त्री-कवि कुछ और, पुरुष-कवि कुछ और। ऐसा नहीं है कि ऐसा पहले कभी हुआ न हो। पर यहाँ मैं एक बात कहना चाहता हूं कि हम सब अपना अपना राग अलाप रहे हैं। पर सब अच्छा लिख रहे हैं, इस में कोई दो राय नहीं हैं। यहाँ कहने का मतलब यह है कि इस से कविता के इस समय में कविता का आंदोलन नहीं बन पा रहा।
कुछ ऐसा नहीं हो पा रहा कि हिंदी-साहित्य जगत में कोई हलचल मच रही हो अथवा हिंदी वरिष्ठ साहित्यकारों की नज़र हमारी और आकर्षित हो रही हो। सुखद बात तो यह है की हमारे इर्द गिर्द आलोचकों/समीक्षकों की भरमार है पर एक कमी यह है कि इन में से एक भी ऐसा नहीं जो सब को एक सूत्र में बांधे या कम से कम नव -जागरण का आह्वान करे। परिणाम स्वरूप कोई मुहीम शुरू हो जैसे कुछ दशक पूर्व चली थी। ऐसा कोई गठन जैसे कुमार विकल, निरूतमा दत्त अतुल अरोरा, सत्यपाल सहगल,भूपिंदर,आदि के समय में बना था। उस काल की अनेक कविताएँ आभास दिलाती थीं कि एक मुहीम चल निकली है। ऐसे ही सूर्यकान्त त्रिपाठी, निराला, सुमित्रा नंदन पंत, महादेवी वर्मा, और हरिवंश रॉय बच्चन के समय में हुआ था। इन कवियों ने अपनी अपनी अलग शैलियों के बावजूद, अपनी अपनी काव्यधारा की विशिष्ट छाप छोड़ी थी. मैं ऐसा सोचता हूँ। इन दिनों अपने अनेक साथियों की पुस्तकें लगभग एक साथ एक ही समय में प्रकाशित हुईं।
और जो मुझ तक पहुंचीं। जैसे अरुणआदित्य की “धरा का स्वप्न हरा सा”(आधार प्रकाशन पंचकूला, हरयाणा),अनुरानी शर्मा की “काव्य तरंग” (आभास प्रकाशन नई दिल्ली), अलका कांसरा की “सनसेट मियूजिंग्ज़ “, विजय कपूर की “विरोधाभास के पलड़े पर”( पारस प्रकाशन चंडीगढ़ ), और सारिका धूपड़ की “अभिसार”, (विट बुक्स दरयागंज, नई दिल्ली) से।
“अभिसार”, सारिका धूपड़ का प्रथम काव्य संग्रह है , विट बुक्स दरयागंज, नई दिल्ली द्वारा २०२३ में प्रकाशित। इस संग्रह में 55 कवितायेँ हैं। और इन्हें पारम्पारिक ढंग से पाँच खण्डों में विभक्त किया गया है। हर खंड के उपनाम से अनुमान लगाना सहज है कि यह कवितायेँ कैसी हैं, विशेष कर विषयवस्तु की दृष्टि से। ये खंड हैं – जीवन दर्शन, श्रृंगार रस , प्रेरक, रिश्तों का रंग, और कोविद काळ। इन कविताओं को सरसरी तौर पर पढ़ते हुए , ख्याल आता है की यह किस तरह की कवितायेँ हैं। और इन्हें किस श्रेणी में रखा जाये। या ये कविताएँ केवल कवि की भावनात्मक स्थितियों का संग्रह मात्र है। अलबत्ता दूसरी बार पढ़ने पर , इन कविताओं में एक सूत्र नज़र और विशिसगत विषय और क्रम दिखाई देने लगता है। छोटी सी यात्रा, अब तक के जिए जीवन की सरल सुगम सुखद यात्रा की काव्यात्मक कथा। इन कविताओं को ‘मुद्रा’ के दृष्टिकोण से आंकने का प्रयत्न करें, ये शत प्रतिशत वैयक्तिक हैं। अपने सुख दुःख की रिपोर्ट, बचपन, माता पिता की स्मृतियों की छोटी छोटी झलकियां, कुछ डर, कुछ साहस कुछ नई धारणाओं और नई योजनाओं की धीमी धीमी दस्तकें।
प्रथम खंड में साधारण उल्लास, रंगों के प्रति आकर्षण, पतझड़, दर्द, हार-जीत के बीच असमंजस का वर्णन, भिन्न भिन्न मुखौटे पहने इंसानों के मध्य अपने एक ‘दृष्टिकोण’ को जीने की लालसा, मन चाहा पहरावा, शंकाएँ, दुविधाएँ, सुरीले गीत आदि कवि की चाहतों और जीवन दर्शन की ओर संकेत करते हैं। जैसे कि ये इन कविताओं के संतुलन के लिए पासिंग हों। या भावी जीवन के ऊबड़ खाबड़ पथ के लिये ध्यानाकर्षक सावधानियां।
दुसरे खंड -श्रृंगार रस – में श्रृंगार संबंधी शब्दावली और अनेक सन्दर्भ दृष्टिगोचर होते हैं। जैसे – जज़्बात का रिसना , अकारण फूट फूटकर रोना, बेवफाई, मोहब्बत, स्वप्न ,नादान दिल, सीने में खंजर की चुभन, आदमजात के प्रति संदेहात्मक दृष्टि आदि। नज़दीकियां तलाश करती आंखें, ‘सदा आबाद रहती हूँ / तुम्हारे ख्यालों के साथ मैं ‘, और फिर असमंजस के मध्य खींचातानी – ‘तुम गुबार में रहे,और मैं इंतज़ार में। ऐसी अनेक भवाव्यक्तियाँ।
तीसरा खंड- प्रेरक। लिखूं या न लिखूं -यह दुविधा , दुनिया की बातों का डर , उड़ान का भय – आत्मविश्वास की कमी और इसी बीच एक खूबसूरत कविता — “आँगन के प्रहरी ” अडिग प्रहरी से उसकी रक्षा एवं उसकी भावनाओं के अनुरूप , उसकी अभुक्त पिपासाओं और असीम सपनों का अनुमोदन सा करते हुए , उड़ान के मध्य पापा का ख्याल , सफर के दौरान चिंतन,और अपने प्रति आश्वासन ‘कि दिन संवरेंगे जल्द’ और क्योंकि यह प्रौढ़ावस्था है, तो सामाजिकता की ओर भी ध्यान जाता है– ‘जय जवान जय किसान। ‘ और यद्यपि सफर के पड़ाव पर ज़िन्दगी में अक्सर कुछ गंभीरता से नहीं सोचा जा सकता। पर इन कविताओं की नायिका सोचती है कि वह अनेक सदमों के बावजूद हँसेगी मुस्करायेगी। तन्हाई में रोना, रोमांस की एक महत्वपूर्ण अवस्था है जब जीवन अकारण बेबस, बेज़ार, तबाह, हताश लगने लगता है। इसी उम्र में एक अन्य पड़ाव पर नायिका एकाएक दार्शनिक हो जाती है -‘ पतंग की डोर खींचने वाले को / धीरज रखना ज़रूरी है। ‘ आदि आदि। अपने को समझने का एक
ईमानदार प्रयास। ‘ रूह से रूबरू होने की आरज़ू। ‘ प्रणय भाव का प्रथम अंकुरण और अकस्मात प्रस्फुटन।
चतुर्थ खंड -रिश्तों का रंग। इस में रिश्तों की तपिश और उनके महत्व का एहसास ,जैसे ‘सितारा बाबा’, ‘मां, मैं तुम बनती जा रही हूँ’। और फिर एक प्रौढ़ विचार और ‘मर्द’ का मूल्यांकन –
‘कहाँ क़दर कर पाते हैं / उसके प्यार की /एतवार की/ इंतज़ार की।’ एक कटु या मधुर अनुभव के उपरान्त का यह क्रांतिकारी और चौंकाने वाला बयान। पर सुखद एहसास। मर्यादा का ख्याल। संस्कार। रिश्तों में दरार। यारां नाल बहारां। और चिर प्रतीक्षित बयान- सखी की याद। उसके साथ दिल की बात कहने की तीव्र आकांक्षा। बारिश का रोमांच।सखियों संग प्रेम और पानी में भीगना। और प्रौढ़ता का एक महत्वपूर्ण संकेत- वर्षा के बाद सौंधी मिट्टी का महकना।।। अजब सा रोमांस। और फिर पापा की गर्म आगोश, स्वाभिमानिनी गुड़िया, ‘पापा की गुड़िया’।और पापा जैसा बनाने की चाह।
अंतिम खंड, कोविड काल। विपत्तियों का महाकाल। विवशता का समय। मनन और चिंतन का अवसर। 2020 का भयंकर साल। महामारी के साथ महाबोध की अवस्था। फ़िक्र की मॉकटेल। आनलाइन शिक्षा।और महत्वपूर्ण आत्म ज्ञान – ‘ मेरी मुझ से मुलाक़ात हुई। ‘और इसी में से दीखता हुआ जीने का रास्ता। और गुड़िया के प्रौढ़ और
यौवनावस्था की प्रथम आहाट का उत्कट एहसास। और यह प्रण कि – ‘उसे खुद को आज़माने का भरोसा दिलाना है।
बहुत सुंदर कवितायेँ। ईमानदार आत्मस्वीकृतियाँ। सुंदर भाव। सोद्देश्य लिखा जीवन-वृत्त। अनेक शाखाओं पर बैठे ‘पंछी-भावों’ के सांगजीने-उड़ने की अभिलाषाओं के श्रेष्ठतम आलेख। ये सुघड़ सलोनी अपूर्व और प्रिय कविताएं।
अंत में मैं एक प्रसिद्ध लेखिका यहां उद्धृत कर रहा हूँ – आधुनिक हिन्दी कविता के विस्तृत और बहुरंगी निरंतर चलते परिदृश्य को समेटने के लिए दृष्टि की बेधकता और व्यापकता अति आवश्यक है। यह संकेत/सन्देश हम सब के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
सारिका धूपड़ को बहुत बहुत बधाई इस बहुत निजी भावनात्मक ‘अभिसार’ की
मनमोहक काव्यात्मक कथा को पाठकों के साथ साँझा करने के लिए।
धन्यवाद।
शुभम।