आस्था | अमृत वेले हुक्मनामा श्री दरबार साहिब, अमृतसर, अंग 496
अमृत वेले हुक्मनामा श्री दरबार साहिब, अमृतसर, अंग 496, दिनांक 10-11-2023
गुजरी महला 5. माता करै पचम कै तै पूरब ही ले जात। खिन मह थापि उत्थापनाहारा अपन हाथी मतत।1। स्यानाप कहु कामी न आत॥ अनरूपियो ठाकुरी ने मुझसे क्या कहा।1. रहना देसु कमावन धन जोरन की मनसा बिचे निकसे सास॥ लस्कर नेब खवास सब त्यागे जम पूरी उठी सिद्धस।।2।। होइ अन्ननि मंहथ की धीरता आपस कौ नात॥ क्रोध हो तो छोड़ो, फिर सोओ, फिर खाओ।3। सहज सुभै भाई किरपाला तिसु जन की कटि फास। नानक कहो, गुरु पूर्णतया दुःखी।।4.4.5।।
गूजरी महल 5. माता करै पछम कै तै पूरब ही लेइ जात। खिन मही थापि उठपनहारा अपन हाथी मतत॥1॥ स्यानाप कहु कामी न आत॥ जो अनरूपियो ठाकुरी मेरे साथ हो रहा है। रहना देसु कामवन धन जोरन की मनसा बेचे निकसे सास॥ लस्कर नेब खवस सभ तिअगे जम पुरी उठी सिधास होइ अन्ननि मंहथ की दृष्टा आपस कौ जानत॥ जो सोता है और सोने के बाद दोबारा खाता है।3. सहज सुभै कृपाला तिसु जन की कटि फास॥ कह गुरु नानक मिले पूर्ण, परवाणु गिरा उदास ॥4॥4॥5॥
अर्थ:-संकल्प-सलाह। पचम कै ताई—पश्चिम जाने के लिए। काई ताई के लिए. थापी – व्यवस्था करके उत्थापनहारा – नष्ट करने की शक्ति रखने वाला। हाथों में हाथ मतत – मतान्त, मंत्रणा का अंत, निर्णय।1. काहू कामी–किसी कार्य में। अनरुपियो-मिथक के लिए, आकर्षण के लिए। ठकुरी मेरे—मेरे ठाकुर ने। होइ रही-हो रही है, जरूर होती है।1. रहना मनसा-इच्छा, अभिलाषा। बिचे – केवल में निकसे—बाहर जाओ। साँस लस्कर – सेनाएँ। नेब-नायब, रईस। खवास—चोबदार। त्यागे-त्यागी, जा रहे हैं। जाम पुरी—परलोक में।2. अन्ननी—जो दूसरी तरफ से चला गया है। (माया वाला पासा छोड़ना = होई अन्ननी)। दृढ़ता – दृढ़ संकल्प आपस कौ—अपने आप को। जनत—(बड़ा) घोषित करता है। अनिन्दु—नः निन्दन-जोग।3। अंतर्ज्ञान – अपना व्यक्तिगत। सुभय-प्रेम के अनुसार। सहज सुभाय – अपने व्यक्तिगत प्रेम के अनुसार, अपने स्वाभाविक प्रेम के साथ। अर्पण—प्राप्त।4.
भावार्थ:- (हे भाई! मनुष्य की अपनी) चतुराई किसी काम की नहीं होती। मेरे ठाकुर ने जो कहा वह वही रहेगा।1. रहना अरे भइया! मनुष्य को पश्चिम की ओर जाने की सलाह दी जाती है, ईश्वर उसे उत्थान की ओर ले जाता है। अरे भइया! ईश्वर के पास एक पल में निर्माण और विनाश करने की शक्ति है। हर फैसला उसके हाथ में है.1. (देखो भाई!) दूसरे देशों को जीतने और धन संचय करने की चाह में मनुष्य की जान चली जाती है, वह सेना, कुलीन, चोबदार आदि को छोड़कर परलोक चला जाता है। (उसकी अपनी बुद्धि ही धुरी की धुरी बनी रहती है) 2. (दूसरी ओर जो स्वयं संसार छोड़कर चला गया है उसकी स्थिति देखो) अपने मन की दृढ़ता के पीछे माया का त्याग करके (भूमि का त्याग करना, महान कार्य समझकर, वह मनुष्य वैरागी हो गया है) वह कहता है कि यह निन्दा नहीं थी, परन्तु वह इसे निन्दा कहकर मिथ्या निरूपित करता है और इसे त्याग देता है (यहाँ तक कि छोड़ भी देता है) तथा इसे बार-बार (गृहों से निकालकर) खाता है।3. (अतः न तो धन-संपत्ति संचय करने वाली चतुराई काम आती है और न त्याग का अभिमान ही कुछ लाभ देता है) वह भगवान अपने स्वाभाविक प्रेम की प्रेरणा से उस मनुष्य पर दयालु होकर (उसके प्रेम के) फंदे को काट देता है माया उस व्यक्ति की. देती है हे नानक! कहें – जिस व्यक्ति को गृहस्थ में रहते हुए पूर्ण गुरु मिल जाता है, वह माया से मुक्त हो जाता है और भगवान के सान्निध्य में स्वीकृत हो जाता है।4. 4.5.
भावार्थ:-(अरे भाई! मानुख की अपनी) चतुराई कोई काम नहीं। मेरे ठाकुर ने मीठी होती है वही हो के रहता है 1. रहो. अरे भइया! मनुष्य पश्चिम जाने की योजना बनाता है, भगवान उसे पूर्व की ओर ले जाते हैं। अरे भइया! ईश्वर के पास सृजन और विनाश करने की शक्ति है। हर फैसला उसके हाथ में है.1. (देखो भाई!) और देशों को जीतने और धन इकट्ठा करने की चाह में मनुष्य की जान चली जाती है और वह सेना, अहिलकर चोबदार आदि को छोड़कर परलोक की ओर चला जाता है। 2. उस शख्स का दूसरा पहलू भी देखिये जिसने अपनी जिद के सहारे दुनिया छोड़ दी है, उसने अपना प्यार छोड़ दिया है।3. (तो, ना धान-पार्ट करने वाली कतरा की काम है अर ही त्याग का मन को बलब है) वह भगवान, अपने परोपकारी प्रेम की प्रेरणा से, उस व्यक्ति पर दयालु है (माया के मोह की)। गुरु नानक कहते हैं! हे नानक! जिस व्यक्ति को पूर्ण गुरु मिल जाता है वह गृहसत् रहते हुए भी माया से मुक्त होकर भगवान के सान्निध्य में स्वीकार हो जाता है।4.4.5.