पीजीआई अध्ययन में किया गया दावा, डिप्रेशन की यूनिवर्सल स्क्रीनिंग से देश को 482 रुपये अरब तक की सालाना बचत संभव

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चंडीगढ़: पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआई) और बेंगलुरु स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज (निमहांस) के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक बड़े अध्ययन में दावा किया गया है कि यदि भारत की प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली में डिप्रेशन की सार्वभौमिक जांच (यूनिवर्सल स्क्रीनिंग) शुरू की जाए, तो देश को हर साल 291 अरब रुपये से 482 अरब रुपये तक की शुद्ध बचत हो सकती है। यह अध्ययन प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल द लैंसेट रीजनल हेल्थ साउथईस्ट एशिया में प्रकाशित हुआ है। शोध के अनुसार यह बचत भारत की जीडीपी का लगभग 0.19% से 0.32% तक हो सकती है। शोधकर्ताओं ने बताया कि 20 वर्ष या उससे अधिक आयु के लोगों की स्क्रीनिंग, 30 वर्ष से अधिक आयु वालों की तुलना में कम खर्चीली पड़ेगी। साथ ही यह भी सामने आया कि यदि कम से कम 60% मरीजों का इलाज सरकारी स्वास्थ्य संस्थानों में किया जाता है, तो यह कार्यक्रम आर्थिक रूप से और अधिक लाभकारी हो सकता है।

अध्ययन में यह भी बताया गया कि वर्तमान में देश में डिप्रेशन की पहचान अधिकतर ‘ऑपर्च्युनिस्टिक डायग्नोसिस’ के जरिए होती है, यानी किसी अन्य बीमारी की जांच के दौरान संयोग से मानसिक रोग का पता चलता है। वहीं, प्रस्तावित यूनिवर्सल स्क्रीनिंग प्रणाली में पीएचक्यू-2 और पीएचक्यू-9 जैसे अंतरराष्ट्रीय मानकों पर आधारित प्रश्नावली के माध्यम से समय रहते बीमारी की पहचान हो सकेगी। पीजीआई चंडीगढ़ से जुड़े शोधकर्ताओं का कहना है कि इस मॉडल के लागू होने से हर साल डिप्रेशन से जुड़ी आत्महत्याओं में लगभग 15% तक की कमी आ सकती है। यह आंकड़ा शुरुआती पहचान और समय पर उपचार की अहमियत को साफ दर्शाता है। गौरतलब है कि केंद्र सरकार की आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के तहत मानसिक रोगों से जुड़ी 22 प्रक्रियाओं के लिए कैशलेस इलाज की सुविधा पहले से उपलब्ध है, जिसमें स्किज़ोफ्रेनिया, ऑटिज्म और बौद्धिक दिव्यांगता जैसी बीमारियां शामिल हैं। शोधकर्ताओं ने कहा कि यह अध्ययन प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने और मानसिक स्वास्थ्य को नीति के केंद्र में लाने के लिए एक ठोस आधार प्रदान करता है।

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