बाराबंकी की मिट्टी से तेहरान के तख्त तक का सफर, जानिए खुमैनी और भारत, खासकर बाराबंकी से क्या है उनका गहरा कनेक्शन।

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले का किंटूर गांव। यह छोटा सा गांव है लेकिन इसकी मिट्टी का अपना ही जीवंत इतिहास है। यह वही मिट्टी है जहां से एक ऐसा सफर शुरू हुआ, जिसने ना केवल एक परिवार, बल्कि एक मुल्क की तकदीर को बदल कर रख दिया। यह कहानी है सैयद अहमद मुसावी की, जिनके कदमों ने किंटूर से खुमैन तक का सफर तय किया। मुसावी के वंशजों ने ईरान की धार्मिक सत्ता को एक नई पहचान दी। चलिए आपको इतिहास से झरोखे से ईरान की वर्तमान तस्वीर दिखाते हैं।
किंटूर से नजफ तक की राह
19वीं सदी की शुरुआत में जब ब्रिटिश हुकूमत का साया हिंदुस्तान पर गहराया था तो किंटूर के एक साधारण से शिया परिवार में सैयद अहमद मुसावी ने जन्म लिया। मुसावी के पूर्वज ईरान से ही आए थे, लेकिन किंटूर की मिट्टी ने उन्हें अपनी जड़ों से जोड़ रखा था। सैयद अहमद का रुझान मजहबी इल्म की ओर था। 1830 के दशक में, जब वह बराबंकी से इराक के नजफ शहर में हजरत अली के रौजे की जियारत के लिए निकले, तो शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह सफर इतिहास के पन्नों को पलट देगा।
नजफ से खुमैन तक का सफर
नजफ की गलियों में सैयद अहमद ने ना केवल इल्म अर्जित किया, बल्कि एक नई मंजिल भी तलाश ली। नजफ से सैयद ईरान के खुमैन शहर पहुंचे, जहां उन्होंने नई जिंदगी शुरू की। शादी की, परिवार बसाया, लेकिन अपनी हिंदुस्तानी पहचान को कभी नहीं छोड़ा। उन्होंने अपने आगे उपनाम ‘हिंदी’ जोड़ा, जिससे लोग उन्हें “सैयद अहमद मुसावी हिंदी” कहकर पुकारते थे। 1869 में कर्बला में सैयद अहमद मुसावी का निधन हो गया लेकिन उनकी तालीम और नजरिया उनके वंशजों को आगे की राह दिखाता रहा।