प्रधानमंत्री मोदी के नाम एक और नया रिकॉर्ड, अब तक 17 देशों की संसदों को कर चुके हैं संबोधित।
नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक और रिकार्ड अपने नाम किया है। वे अब तक 17 देशों की संसद को संबोधित कर चुके हैं। यह उनके सभी कांग्रेसी पूर्ववर्तियों के कुल संबोधनों की संख्या के बराबर है। आधिकारिक सूत्रों ने बुधवार को यह जानकारी दी। प्रधानमंत्री का पांच देशों का दौरा आज खत्म हो रहा है। इस दौरान उन्होंने घाना, त्रिनिदाद एवं टोबैगो तथा नामीबिया की संसदों को संबोधित किया
पीएम मोदी ने किस आंकड़े की बराबरी की?
सूत्रों ने बताया कि कांग्रेस पार्टी से संबद्ध प्रधानमंत्रियों मनमोहन सिंह ने सात बार, इंदिरा गांधी ने चार बार, जवाहरलाल नेहरू ने तीन बार, राजीव गांधी ने दो बार और पीवी नरसिंह राव ने एक बार दूसरे देश की संसद को संबोधित किया था। इस प्रकार कांग्रेस से संबद्ध पांच प्रधानमंत्रियों ने करीब सात दशक में कुल 17 बार विदेशी संसद को संबोधित किया था। अधिकारियों ने बताया कि पीएम मोदी ने इस आंकड़े की बराबरी कर ली है।
विकसित और विकासशील देशों की संसद को किया संबोधित
सूत्रों ने बताया कि मोदी ने विकसित और विकासशील देशों की संसदों को संबोधित किया है, जो आज भारत के व्यापक वैश्विक सम्मान और प्रासंगिकता को दर्शाता है। एक अधिकारी ने कहा, ‘‘भारत ‘ग्लोबल साउथ’ के कई देशों के साथ, उनके स्वतंत्रता संग्राम के दौरान खड़ा रहा है। उन्होंने तब भी हमारी बात सुनी थी और आज भी वे हमारी बात सुनना चाहते हैं, खासकर हमारी लोकतांत्रिक और विकास यात्रा की।’’ प्रधानमंत्री मोदी ने जिन देशों के सांसदों को संबोधित किया है उनमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, नेपाल, मंगोलिया, भूटान, श्रीलंका, मॉरीशस, मालदीव, गुयाना, फिजी और युगांडा शामिल हैं।
संवाद, साझेदारी से भविष्य को आकार देना होगा: मोदी
नामीबिया की संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बुधवार को कहा कि दोनों पक्षों को एक ऐसे भविष्य का निर्माण करने के लिए मिलकर काम करना चाहिए जो शक्ति और वर्चस्व से नहीं, बल्कि साझेदारी एवं संवाद के जरिये हो। पीएम मोदी ने कहा कि अफ्रीका को केवल कच्चे माल का स्रोत नहीं बनना चाहिए बल्कि इसे मूल्य संवर्धन और सतत विकास में अग्रणी होना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘‘हमें मिलकर काम करना होगा। आइए हम एक ऐसा भविष्य बनाएं जो शक्ति से नहीं बल्कि साझेदारी से, वर्चस्व से नहीं बल्कि संवाद से, बहिष्कार से नहीं बल्कि समता से परिभाषित हो।’’
