Haryana Assembly Election: सैलजा से केजरीवाल तक… हुड्डा के लिए कैसे मुश्किल होता जा रहा हरियाणा चुनाव?
हरियाणा विधानसभा चुनाव की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, वैसे-वैसे कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के लिए सियासी मुश्किलें बढ़ती ही जा रही हैं. तीन महीने पहले लोकसभा चुनाव के नतीजे आए तो हरियाणा की सियासी फिजा पूरी तरह कांग्रेस के पक्ष में दिख रही थी. भूपेंद्र के सियासी हौसले बुलंद थे और कांग्रेस को दस साल के बाद सत्ता का वनवास खत्म होने की उम्मीद दिखने लगी थी, लेकिन विधानसभा चुनाव के नामांकन खत्म होते ही सियासी माहौल में तेजी से बदलाव दिखा. ऐसे में सीएम अरविंद केजरीवाल की रिहाई और कांग्रेस नेता कुमारी सैलजा की नाराजगी ने हुड्डा से लेकर कांग्रेस तक की टेंशन बढ़ा दी है.
2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी मिलकर हरियाणा में लड़ी थी. राज्य की 10 में से पांच सीटें कांग्रेस और पांच सीटें बीजेपी ने जीती हैं. बीजेपी को सीटों का नुकसान ही नहीं बल्कि वोट शेयर में भी तगड़ा झटका लगा था. 2019 में बीजेपी को जहां 58.2 फीसदी वोट के साथ 10 सीटें मिली थीं, तो 2024 में पार्टी का वोट शेयर कम होकर 46.11 फीसद और पांच सीटों पर पहुंच गया. वहीं, कांग्रेस 28.5 फीसदी वोट शेयर से बढ़कर 43.67 फीसदी पर पहुंच गई. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 47 विधानसभा सीटों पर बीजेपी से ज्यादा वोट मिला था, जिसके चलते कांग्रेस और भूपेंद्र हुड्डा को सत्ता में अपनी वापसी की उम्मीदें नजर आने लगी थी.
हरियाणा में कांग्रेस लोकसभा की तरह विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन दोहराने की कोशिश में है, लेकिन चुनावी तपिश बढ़ने के साथ ही मुश्किलें भी कांग्रेस की बढ़ती जा रही है. कांग्रेस को पहला झटका आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन टूटने पर लगा. AAP ने हरियाणा के सभी सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए हैं और केजरीवाल ने प्रचार भी शुरू कर दिया है. इसके बाद कांग्रेस के उम्मीदवारों की लिस्ट आने के बाद कुमारी सैलजा और भूपेंद्र सिंह हुड्डा खेमे के बीच सियासी तकरार साफ तौर पर दिखी. सैलजा ने प्रचार से दूरी बना ली और साइलेंट मोड में चलीं, जिसे लेकर बसपा और बीजेपी ने सियासी मुद्दा ही नहीं बनाया बल्कि दलित स्वाभिमान से भी जोड़ा. कांग्रेस ने सैलजा को मना लिया है, लेकिन पार्टी की अंदरुनी गुटबाजी सियासी टेंशन का सबब बन गई है.
कुमारी सैलजा कांग्रेस का दलित चेहरा मानी जाती हैं और पांच बार सांसद रही हैं. हरियाणा की सियासत में कुमारी सैलजा का अपना राजनीतिक आधार है. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस टिकट बंटवारे में हुड्डा खेमे को अहमियत मिली तो सैलजा अपने 10 करीबी नेताओं को ही टिकट दिला सकी हैं. इतना ही नहीं सैलजा अपने ओएसडी डॉ. अजय चौधरी को भी टिकट नहीं दिला पाईं और उकलाना से खुद चुनाव लड़ना चाहती थीं. हुड्डा खेमे के समर्थकों की ओर से की गईं टिप्पणियों से सैलजा ने चुनाव प्रचार से दूरी बना ली.
बसपा से बीजेपी तक कुमारी सैलजा के बहाने कांग्रेस पर हमलावर है. यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि कांग्रेस में दलित नेताओं का सम्मान नहीं कर रही है. बीजेपी के राष्ट्रीय नेता भी सैलजा के मुद्दे को दलित स्वाभिमान से जोड़ रहे हैं. इस तरह कुमारी सैलजा के सियासी प्रभाव वाले इलाके पंचकूला, अंबाला, यमुनानगर , हिसार और सिरसा की विधानसभा सीटों को साधने का दांव है. कांग्रेस ने भले ही सैलजा को मना लिया हो और मरते दम तक पार्टी में रहने की बात कर रही हों, लेकिन उनकी नाराजगी का संदेश जा चुका है. सैलजा के प्रभाव वाली सीटों पर पार्टी का समीकरण गड़बड़ा सकता है.
बीजेपी से मुकाबला करने के लिए कांग्रेस जाट-दलित कॉम्बिनेशन पर काम कर रहे हैं. इस फॉर्मूले पर ही कांग्रेस लोकसभा चुनाव में हरियाणा की पांच सीटें जीतने में कामयाब रही थी. विधानसभा चुनाव में दलित वोट काफी निर्णायक माने जा रहे हैं. कांग्रेस का दारोमदार जाट-दलित मतों पर टिका है. सैलजा की नाराजगी ने कांग्रेस के दलित वोटों का खेल बिगाड़ दिया है. राज्य में करीब 21 फीसदी दलित मतदाता हैं. राज्य की कुल 90 में से दलित समाज के लिए 17 विधानसभा सीटें सुरक्षित हैं, लेकिन सियासी प्रभाव उससे कहीं ज्यादा है. जाट समुदाय की आबादी 25 से 27 फीसदी के बीच है. दलित-जाट वोटों के एक साथ आने से 50 से ज्यादा सीटों पर प्रभाव पड़ता है. भूपेंद्र सिंह हुड्डा के जरिए जाट वोट भले ही एकजुट रहे, लेकिन सैलजा की नाराजगी ने कांग्रेस की टेंशन बढ़ा दी है.
कुमारी सैलजा के चुनावी कैंपेन से दूरी बनाए रखने के चलते दलित समुदाय के बिखराव का खतरा बन गया है. बीजेपी के कद्दावर नेता और केंद्रीय मंत्री मनोहर लाल खट्टर से लेकर मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी और अनिल विज तक लगातार कह रहे हैं कि दलित होने की वजह से ही कांग्रेस ने कुमारी सैलजा का अपमान किया है. केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी कहा कि कांग्रेस ने कभी भी दलित नेताओं को अहमियत नहीं दी. इतना ही नहीं मायावती भी खुलकर कांग्रेस को दलित विरोधी कठघरे में खड़ा करने में जुट गई हैं. ऐसे में दलित वोटर किसी भी दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत राज्य में रखते हैं. कुमारी सैलजा का मुद्दा कांग्रेस का चुनावी गेम बिगाड़ सकता है क्योंकि कांग्रेस की पूरी कोशिश जाट-दलित समीकरण के सहारे ही सत्ता का वनवास खत्म करने की है.
अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के साथ मिलकर हरियाणा में लोकसभा चुनाव लड़ा था, लेकिन विधानसभा में एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोक रखी है. 2024 के लोकसभा में AAP ने कुरुक्षेत्र संसदीय सीट पर चुनाव लड़ा था और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुशील गुप्ता उम्मीदवार थे, जिन्हें पांच लाख 13 हजार वोट मिले थे. हरियाणा में AAP भले ही जीत न सकी हो, लेकिन 3.94 फ़ीसदी वोट पाने में सफल रही थी. इस बार आम आदमी पार्टी सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही है. अरविंद केजरीवाल जमानत पर जेल से ऐसे समय बाहर आए हैं, जब हरियाणा का चुनाव अपने पूरे शबाब पर है. ऐसे में केजरीवाल अपने गृह राज्य में पूरे दमखम के साथ उतर गए हैं. इसके अलावा संजय सिंह से लेकर मनीष सिसोदिया और पंजाब के सीएम भगवंत मान भी हरियाणा में एक्टिव हैं.
आम आदमी पार्टी के चुनाव मैदान में उतरने से कांग्रेस का गेम गड़बड़ा सकता है. केजरीवाल ने गुजरात, गोवा, पंजाब और दिल्ली में कांग्रेस की जमीन पर कब्जा जमाकर अपनी राजनीति खड़ी की है. यही वजह है कि केजरीवाल के हरियाणा में उतरने से कांग्रेस के लिए खासकर शहरी क्षेत्र में नुकसान हो सकता है, क्योंकि उनका प्रभाव ज्यादातर युवा और शहरी मतदाताओं के बीच है. ऐसे में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के अगुवाई में उतरी कांग्रेस के लिए केजरीवाल नई टेंशन बन गए हैं.
हरियाणा की सियासत में कई ऐसे दूसरे राजनीतिक दल हैं, जो किंगमेकर की भूमिका में आते रहे हैं. बीते चुनाव में दुष्यंत चौटाला की जेजेपी ने सरकार बनवाने में अहम भूमिका अदा की थी. इस बार जेजेपी ने चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनाव मैदान में उतरी है. ऐसे ही इनेलो ने भी बसपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ रही है. इन दोनों ही छोटे दलों की नजर उन्हीं जाट-दलित वोटबैंक पर है, जिनके दम पर कांग्रेस हरियाणा में सत्ता का वनवास खत्म करना चाहती है. इनेलो और जेजेपी का आधार जाट वोटों पर है, जबकि बसपा और चंद्रशेखर की नजर दलित वोटों पर है. ऐसे में भले ही छोटे दल किंगमेकर बनने की उम्मीद में उतरे हों, लेकिन उससे कांग्रेस और भूपेंद्र सिंह हुड्डा की सियासी चाल गड़बड़ा सकती है. यही वजह है कि हुड्डा लगातार जाट और दलित समुदाय के साथ-साथ मुस्लिम और ओबीसी वोटों को भी साधने में लगे हैं.