संविधान के जिस आर्टिकल पर अमृतपाल को आपत्ति, वही 80 के दशक में बना था आतंकवाद की बड़ी वजह!

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रागा न्यूज़, चंड़ीगढ़।

 

खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह आजकल पंजाब से लेकर देश के कोने-कोने में सुर्खियों में है। आए दिन उसके अलग-अलग बयान सामने आ रहे हैं। एक इंटरव्यू में तो उसने यह भी बताया कि उसे हिंदुस्तान और भारतीय संविधान किस हिस्से से से आपत्ति है। उसे संविधान के जिस आर्टिकल की व्याख्या से आपत्ति है, वह 1984 में पंजाब को आतंकवाद के साए में धकेलने में एक बड़ी वजह बनी थी।

 

अमृतपाल ने कहा कि हमारा धर्म पूरी तरह स्वतंत्र है। उसका किसी के भी साथ लेना-देना नहीं है, लेकिन इसके बावजूद फिर आर्टिकल 125 (बी) में लिखा है कि सिख जो है, शाखा है, एक बड़े पेड़ की, जिसे हिंदुत्व या सनातन कहा जाता है। अमृतपाल कहता है कि हमें इस बात से भी समस्या है। वह कहता है कि मेरी बात नहीं है कि मुझे इस पर भरोसा है। भारत का संविधान तो ये भी नहीं कहता कि सिख अलग धर्म है। हालांकि गुरुबानी कहती है कि न हम हिंदू हैं और न मुसलमान हैं।

 

लेखक डॉ. मीना अग्रवाल अपनी पुस्तक ‘इंदिरा गांधी’ के 12वें अध्याय में पंजाब की समस्या का उल्लेख करते हुए लिखती हैं कि पंजाब की समस्या बहुत पुरानी थी, संभवत भारत की आजादी के वक्त की पर पहले इसका रूप इस कदर उलझा हुआ नहीं था और न ही इसके साथ आतंकवाद आकर जुड़ा था। उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा कि अकाली दल पंजाब के सारे सिखों की प्रतिनिधि राजनीतिक पार्टी नहीं है, मगर उसका पंजाब में दबदबा है, विशेषकर गुरुद्वारों पर अधिकार होने की वजह से दल की तत्कालीन अनेक मांगें
थीं. जिनमें राजनीतिक, प्रशासनिक, धार्मिक और संवैधानिक मांगें भी शामिल थीं।

 

राष्ट्रहित को नुकसान न पहुंचे, उनकी ऐसी अनेक मांगें मान ली गई थीं। अधिकांश धार्मिक मांगों को पहले ही स्वीकार किया जा चुका था। जिन मांगों से अन्य राज्य प्रभावित होने थे, उन पर विचार-विमर्श चल रहा था। उनकी जो नई मांग 1984 के शुरू में उठी थी, वह थी कि संविधान की एक पंक्ति में सिखों को जो हिंदुओं के साथ रखा गया है उन्हें अलग किया जाए। आपको यहां बताना चाहते हैं कि यह वही मांग है जिसका जिक्र अब अचानक उदित हए
खालिस्तानी समर्थक अमृतपाल सिंह संधू आर्टिकल 125 (बी) के तौर पर कर रहा है।

 

हालांकि डॉ. मीना अग्रवाल लिखती हैं कि संविधान में ऐसा कुछ नहीं है कि उस पंक्ति को बदले जाने की आवश्यकता थी। मगर आखिर यह क्यों सोचा गया कि हिंदू-सिखों को अलग किया जाए। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में तो यह और भी उचित प्रतीत नहीं होता। आखिर क्या हिंदू-सिख किसी के अलग करने से अलग हो जाएंगे? क्या खून के रिश्ते के भी अलग-अलग सम्प्रदाय होते हैं? कुछ वर्ष पहले तक कोई नहीं जानता था कि सिख और हिंदू कोई जुदा जातियां हैं. जब एक ही परिवार में एक भाई सिख हो और एक भाई हिंदू, तो ये दो
सम्प्रदाय कैसे हो सकते हैं? धर्म- आवरण भी दोनों का समान है। सिख हिंदू देवी-देवताओं को मानते हैं और हिंदू सिख गुरुओं को, संस्कार वही, रहन-सहन वही बस, अंतर है तो केवल इतना ही जितना विभिन्न हिंदू तबकों के संस्कारों में। राजनीतिक स्वार्थ सिद्धियों के लिए जो लोग हिंदू-सिख में विभेद पैदा कर रहे थे, उन्हें इतिहास कभी क्षमा नहीं करेगा।

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